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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


माँ---मुंशी प्रेमचंद


श्रावण की अँधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍं, भीषण स्वप्न की भाँति छाई हुई थीं। प्रकाश रह-रहकार आकाश की ओर देखता था, मानो करुणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी हे। उसने निश्चय किया, सवेरा होते ही माँ को खोजने चलूँगा और अगर....
किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोल, तो देखा, करुणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करूण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अब उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबते देख रही है और कुछ कर नहीं सकती।
प्रकाश ने अधीर होकर पूछा—अम्माँ कहाँ चली गई थीं? बहुत देर लगाई?
करुणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया—एक काम से गई थी। देर हो गई।
यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी-सी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा—यह तुम्हें कहाँ मिल गया अम्मा?
करुणा—तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हूँ।
'क्या तुम वहाँ चली गई थी?'
'और क्या करती।'
'कल तो गाड़ी का समय न था?'
'मोटर ले ली थी।'
प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा, फिर कुंठित स्वर में बोला—जब तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मुझे क्यों भेज रही हो? करुणा ने विरक्त भाव से कहा—इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलिन वेश नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिए; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।
करुणा का कंठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।

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